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मंगलवार, 17 जनवरी 2012

इगो : एक मनोरोग !

परसों के "दैनिक जागरण" में एक खबर पढ़ी थी - "पति ने "सॉरी" नहीं कहा तो गर्भवती ने आग लगा ली" पढ़ा और उसकी तस्वीर भी देखी और फिर एक घटना समझ कर बंद कर दिया। आज ही पता चला कि वह मेरे एक करीबी रिश्तेदार की चचेरी बहन थी।
जैसा कि समाचार में लिखा गया था वाकई सत्यता वही थी। पति रेलवे में नौकरी करता था और अभी एक साल पहले ही शादी हुई थी। उसको अपने ऑफिस से आने में देर हो गयी और आने पर उसने पत्नी से "सॉरी" नहीं बोला और उसकी पत्नी के अहम् को इतनी चोट लगी कि उसने न आगा सोचा और न पीछा और जाकर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली। उसे बुझाने में पति भी झुलस गया लेकिन उसको और उसके गर्भस्थ शिशु को नहीं बचाया जा सका।
ये अहम् या जिसे हम इगो कहते हें वास्तव में एक मनोरोग है । यह व्यक्ति में अपने को अतिरिक्त गुणों से युक्त होने का भ्रम भी पैदा कर देता है। ये इगो लड़कियों में आमतौर पर घर में सबसे खूबसूरत समझने पर , अधिक धनवान परिवार की होने पर, इकलौती संतान होने पर या फिर परिवार में उसको अधिक महत्व देने पर पैदा हो जाती है। ये मनुष्य के स्वभाव का एक सामान्य गुण नहीं है और तब तो बिल्कुल ही नहीं जब कि वह अपने आगे किसी को भी कुछ न समझती हो। ऐसे गुण बच्चों में थोड़ा बड़े होते ही प्रस्फुटित होने लगते हें। इस समय जरूरत होती है कि बच्चों को बहुत सावधानी से समझाया जाए और ये भी नहीं होना चाहिए कि माँ ने उसको समझाने का प्रयास किया और पिता या दादी और दादा ने उसको शह दे दी। ये आदते बचपन में बहुत अच्छी लगती हें लेकिन बड़े होने पर वे इतने गहरे जड़ें जमा चुकी होती हें कि वह जीवन में ऐसे निर्णय भी लेने में संकोच नहीं करती है।
अगर इगो की ये समस्या पारिवारिक जीवन में या फिर वैवाहिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करने में आड़े आने लगे तो मनोचिकित्सक से सलाह ली जा सकती है और उसको काउंसलिंग के द्वारा भी समझाया जा सकता है। वैवाहिक जीवन में दोनों में से किसी भी एक का अहमवादी होना दूसरे के जीवन को नरक बनाने में पूर्ण रूप से जिम्मेदार होता है।
कुछ लोग इस इगो को स्वाभिमान के रूप में परिभाषित करते हें लेकिन ये गलत है, स्वाभिमान और अहम् दोनों ही अलग अलग मनोभाव होते हें। जहाँ स्वाभिमान सकारात्मक भाव है वहीं इगो नकारात्मक भाव है। स्वाभिमान के लिए व्यक्ति खुद को संयमित भी रखता है और उसके आहत होने पर वह विपरीत प्रतिक्रिया कम ही करता है , लेकि इगो में वह संयमित नहीं होता है बल्कि उसके आहत होने पर कभी खुद को और कभी दूसरे को भी हानि पहुंचा सकता है।
इस लेख के लिखने का मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हम अपने घर में , अपने परिचितों के घर में अगर बच्चों में इस तरह की भावना को पलते हुए देखें तो उनको आगाह किया जा सके। ये काम घर में और स्कूल में दोनों ही जगह पर किया जा सकता है क्योंकि घर में फिर भी कम स्कूल में बच्चे इस तरह के भावों का प्रदर्शन बहुत अधिक करते हें। कालेजों में छात्रों में होने वाले संघर्ष के पीछे कभी कभी ये भी भाव रहता है। जिसे हम वर्चस्व की लड़ाई कहते हें उसके पीछे काम करने वाली भावना यही अहम् या इगो होती है।
अगर समय रहते इसको संयमित कर लिया गया तो घर और परिवार दोनों के लिए अच्छा होगा, नहीं तो बच्चे की ये इगो माँ बाप , भाई , बहन या किसी भी पारिवारिक सदस्य के लिए कोई भी मुरव्वत नहीं करती है। वे ऐसे निर्णय ले बैठते हें जिससे एक और कभी कभी दो परिवार जीवन भर के लिए कष्ट पाते हें।

11 टिप्‍पणियां:

  1. इगो चाहे पुरुष की हो या स्‍त्री की, दोनों ही परिवारहित में हानिकारक है। लेकिन दुर्भाग्‍य से यह आदत आजकल बढ़ रही है।

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  2. जी हाँ बहुत सही लिखा है आपने आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ मैं इस और बच्चपन से ही ध्यान देने की बहुत अवशकता होती है। घर के हर एक सदस्य को इस बात पर ध्यान देना चाहिए न की शय
    सारगर्भित आलेख ...समय मिले कभी तो आप आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  3. सत्य ...इस तरह की एक घटना ...मैं भी देख चुकी हूँ ..

    मरने वाला अपनी इगो में मर गया ...पर पीछे बहुत से सवाल और परेशानी छोड़ जाते हैं ......

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  4. बढ़िया आलेख है ..यह समस्या आजकल के एकाकी परिवार के इकलौते बच्चों में बहुत देखी जाती है.

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  5. शिखा ये बिल्कुल सही बात है और इसको हवा देने वालों में हम ही होते हें क्योंकि अपने बच्चे इ तुलना दूसरों से उन मामलों में करते हें जिनका कोई सार नहीं होता और फिर वही बड़े होने पर उनके चरित्र का एक हिस्सा बन जाता है. भविष्य के लिए अगर सावधान हो सकें और कुछ ही प्रतिशत बच्चों को इससे बचाया जा सके तो उत्तम होगा.

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  6. पति पत्नी के बीच की बाते आज के सन्दर्भ में एक अलग प्रकार की जद्दोजहद हैं .
    आज कल पत्नी उतने कोम्प्रोमैज़ नहीं करना चाहती हैं जितने १९६०-१९८० के काल में होते थे
    कारण हैं नारी का सशक्तिकर्ण . आज कल बेटियों को माँ पिता शिक्षित करते हैं , उनको स्वाबलंबी बनाते हैं और बहुत सी जगह एक ही बच्चा होने के कारण बेटियों को अपने घर में क़ोई अडजस्ट मेंट करना ही नहीं पड़ता हैं .
    पहले साधारण रूप से ही बेटी को अपने भाई का सम्मान करना होता था क्युकी वो भाई था यानी परिवार का पुरुष तो शादी के बाद भी पति को परिवार का पुरुष होने के कारण सम्मान देने में उसकी पत्नी को क़ोई परेशानी नहीं थी
    आज की लडकियां बराबर मानती हैं अपने आप को , बात ईगो की नहीं हैं बात हैं उनके सोचने की . पति का सॉरी ना कहना अपना पुरुषत्व दिखना माना जाता हैं और पत्नी के लिये ये एक अपमान की स्थिति हैं आज कल { जो की वस्तुत सही हैं }
    लोगो बेटियों को बराबर कहते हैं , बहू को बेटी कहते हैं , पत्नी को सम्मानित कहते हैं पर महज दिखावा हैं , इस दिखावे से तंग आकर लडकियां , बेटियाँ और बहुये अपने अधिकार के लिये विद्रोह कर रही हैं और अपने को मारना भी एक प्रकार का विद्रोह हैं सामाजिक कुरीति के खिलाफ
    आप को रेखा सोचना होगा की उस महिला की मानसिक प्रतारणा कितनी गहरी होगी की उसको एक सॉरी शब्द भी सुनने को नहीं मिला

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  7. एक गंभीर मुद्दे पर विचारणीय आलेख ……………

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  8. रचना,

    तुमसे मैं पूरी तरह से सहमत नहीं, यहाँ इगो सिर्फ औरत के लिए ही नहीं है बल्कि ये पुरुर्ष दोनों के लिए है. कितने परिवार पुरुष के इगो के कारण टूट जाते हें सिर्फ परिवार ही क्यों? लोग अपने माँ बाप और भाई बहन को तक त्याग देते हें. पाती पत्नी के बीच समझदारी की जरूरत होती है , उसमें सॉरी या फिर ऐसे खेदजनक शब्दों के पीछे आत्महत्या उचित नहीं है. उस बात का आप प्रतिकार कर सकती हें लेकिन जीवन देकर नहीं. इकलौती संतान को भी इस तरह के वातावरण में पाला जन चाहिए कि वह मनोरोग न बन जाए/.

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