फेसबुक अब पूरी तरह से ठगने के विज्ञापनों से भर चुकी है, इसमें काम करने वाले तथाकथित लेखक, पब्लिशर भी है । उनके नाम बड़े हैं या नहीं यह नहीं जानते लेकिन इतना जरुर जानते हैं कि अवसर का फायदा उठाकर पैसा इकट्ठा करने का एक बहुत अच्छा साधन है।
अभी हाल ही में एक घटना घटी - हमारे पास फेसबुक के माध्यम से प्रस्ताव मिला कि अमुक मासिक पत्रिका मां विशेषांक निकालने जा रही है उसके लिए आप अपना लेख और मां के साथ या अलग-अलग फोटो भेजिए जैसा कि अक्सर होता है, मैंने अपना एक आलेख और मां के साथ फोटो वहां पर भेजा। उसके प्राप्त होते ही मुझे वाट्सएप पर मैसेज मिला कि आप ₹100 भेजें , मैंने सोचा कि विशेषांक होगा तो मूल्य हो सकता है। फिर भी मैंने पूछा कि पत्रिका के लिए? उत्तर हां में मिला। मैंने सौ रुपये ऑनलाइन भेज दिये।
एक दो दिन बाद पीडीएफ भेज दी कि अपने आलेख को देख लें कोई परिवर्तन कराना तो लिखें।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिन बाद फिर मेरे कुछ उत्तर न देने पर उनका दूसरा मैसेज आया कि कृपया ₹50+₹200 भेजिए। मेरा दिमाग एकदम चकरा गया पत्रिका के पैसे हमसे पहले ही ले चुके हैं, अब यह किस चीज के पैसे मांग रहे हैं? मैंने उनसे पूछा यह किस चीज के पैसे आपको चाहिए? उन्होंने कहा ₹50 पोस्टेज के और ₹200 मैगजीन के। मैंने कहा जब मैगजीन के पैसे आप फिर ले रहे हैं तो आपने पहले ₹100 किस चीज के लिए थे । उन्होंने कहा - वह मैंने पब्लिशिंग के लिए थे। मुझे लगा कि पब्लिशिंग के पैसे लेने का क्या मतलब? माना पत्रिका कोई मानदेय नहीं देती है लेकिन पैसे लेकर पब्लिश करने वाली पत्रिका का कोई भी वजूद होता ही नहीं। फिर भी मैंने कहा मैं नहीं दूंगी और मुझको पत्रिका भी नहीं चाहिए। इस पर लिखा अच्छा ₹50 मत दीजिए ₹200 दे दीजिए, आपको हम पत्रिका दे देंगे । ठीक है मैंने उनको ₹200 भेज दिए।
उसके बाद उनका मैसेज आया कि हम भोपाल में बहुत बड़ा कार्यक्रम कर रहे हैं, जिसमें ऑनलाइन ऑफलाइन कवि सम्मेलन, पुस्तक विमोचन, नृत्य-संगीत सारी प्रतियोगिताएं रखी जाएगी और आप उसमें किसी भी तरीके से शामिल हो सकते हैं तो मैंने सोचा कि ऑफलाइन शामिल हो जाते हैं। मैंने कहा - मैं सिर्फ ऑफलाइन शामिल हो सकती हूं। बोले अच्छा ठीक है आप ऑफलाइन शामिल हो जाइए और दूसरे दिन मैसेज आता है कि ₹250+₹2100 आप भेज दीजिए । मैंने पूछा यह पैसे किस चीज के चाहिए ? उत्तर मिला वह ऑफलाइन के , आप उसमें शामिल होना चाहती हैं तो उसके लिए आपको ₹250 रजिस्ट्रेशन के और ₹2100 ऑफलाइन का योगदान दीजिए । जिससे आपको पुरस्कार और यह सब चीज मिलेगी। आपको सुविधा प्रदान की जाएगी आपके घर आपका अवार्ड भेजा जाएगा उन सब चीजों के लिए सुनकर तो मुझे ऊपर से नीचे तक आग लग गई। मैंने कहा कि मुझे किसी भी तरह की सहभागिता नहीं चाहिए ना मैं ऑनलाइन और ना मैं ऑफलाइन कोई भी सहभागिता नहीं करुंगी। फिर उनके तरह-तरह के प्रलोभन दिए और वह वेन्यू भी उन्होंने फोटो से भेजा जहां पर प्रोग्राम करने वाले थे, देखिए कितना भव्य प्रोग्राम हो रहा है । ट्रॉफी का चित्र भी भेजा देखी ट्रॉफी हर एक को दी जाएगी और बड़ा सम्मान होगा। अगर आप ऑफलाइन रहेंगे तो आपके घर में ट्रॉफी आएगी। मैंने सोच लिया था कि नहीं लेना है। मैंने कहा मुझे यह खरीदा हुआ कप या कोई भी सम्मान पत्र नहीं चाहिए। मेरी सहभागिता नहीं होगी। अगर आप पत्रिका भेज सके तो भेज दे अन्यथा वह ₹300 भी आप अपने पास रखें। इसके बाद मैं सब खत्म कर दिया। कुछ दिन बाद फिर आया की पिता विशेषांक की तैयारी हो रही है और आप कृपया अपने पिता की फोटो के साथ अपना एक आलेख भेजिए। मुझे बहुत तेज हंसी भी आई और यह भी फिर लगा कि उन्होंने तो व्हाट्सएप पर पूरा बिजनेस उसे डाला होगा मैसेज तो वह मेरे पास भी आ गया । ठीक है मैंने उसको इग्नोर कर दिया मैंने क्या मुझको भाग नहीं लेना है।
एक दिन मुझको वह पत्रिका प्राप्त हुई । मैं उसका चित्र यहां भी नहीं डाल रही हूं लेकिन फिर भी मैं बता रही हूं मुझको पत्रिका प्राप्त हुई, एक किताब उसमें मासिक पत्रिका लिखा हुआ था अंदर जब खोला तो उसका कोई संपादकीय विवरण नहीं, और नहीं, सीधी अनुक्रमणिका उसमें दी गई थी और पूरी पुस्तक में कहीं भी पृष्ठ संख्या नहीं है।
अनुक्रमणिका में भी रचना का कोई जिक्र नहीं सिर्फ़ लेखकों के नाम थे। अनुक्रमणिका की फोटो में यहां पर संलग्न कर देती हूं, जिससे कि समझ में आ सके कि किस तरह के अनुक्रमणिका है । प्रथम पृष्ठ सीधा अनुक्रमणिका है उसके बाद जब अंतर दिखा तो फोटो के साथ एक रचना दो रचना पीछे चलते-चलते पता चला कि एक लेखक की 10-10 रचनाएं हैं उसमें और किसी की दस किसी की पांच किसी की चार करके उसमें कुल 110 रचनाएं थी और उसमें लेखक कल शायद 80 थी । अगर हम आकलन करें तो इस एक किताब की बाबत उन्होंने दो लाख 40 हजार रुपए कमा उसमें सिर्फ नाम दिया किस शहर से प्रकाशित हुई? किस प्रकाशन से। इसका कोई भी विवरण नहीं दिया एक ईमेल एड्रेस था जिसका कोई भरोसा नहीं होता एक कब दिया जाए और कब हटा दिया जाए और कौन से जवाब देता है या नहीं देता है लेकिन पत्रिका के नाम पर इतना बड़ा मजाक मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा और इससे सबक भी मिला कि पैसे लेकर पुस्तक के छपने वाले कितने बड़े व्यापारी होते हैं । और इसको वह अपनी आमदनी का एक साधन बना लेते हैं इन्होंने सारा कलेक्शन एक फोन नंबर पर लिया था और नहीं मालूम कि उसे अकाउंट से जैसा कि आजकल हो रहा है उन्होंने सारा पैसा निकाल के वह अकाउंट बंद कर दिया और फिर नए आलेख को लेकर कोई और नया अकाउंट खोला जाए या कुछ और किया जाए अगर ऐसा कुछ हुआ तो आगे विवरण के अनुसार लेकिन यह सब लोगों से आग्रह है कि इस तरह की चीजों से सावधान रहे।