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शुक्रवार, 6 जून 2025

नया स्टार्ट अप!

           फेसबुक अब पूरी तरह से ठगने के विज्ञापनों से भर चुकी है, इसमें काम करने वाले तथाकथित लेखक, पब्लिशर भी है । उनके नाम बड़े हैं या नहीं यह नहीं जानते लेकिन इतना जरुर जानते हैं कि अवसर का फायदा उठाकर पैसा इकट्ठा करने का एक बहुत अच्छा साधन है। 

            अभी हाल ही में एक घटना घटी - हमारे पास फेसबुक के माध्यम से प्रस्ताव मिला कि अमुक मासिक पत्रिका मां विशेषांक निकालने जा रही है उसके लिए आप अपना लेख और मां के साथ या अलग-अलग फोटो भेजिए जैसा कि अक्सर होता है,  मैंने अपना एक आलेख और मां के साथ फोटो वहां पर भेजा। उसके प्राप्त होते ही मुझे वाट्सएप पर मैसेज मिला कि आप ₹100 भेजें , मैंने सोचा कि विशेषांक होगा तो मूल्य हो सकता है।  फिर भी मैंने पूछा कि पत्रिका के लिए? उत्तर हां में मिला। मैंने सौ रुपये ऑनलाइन भेज दिये। 

             एक दो दिन बाद पीडीएफ भेज दी कि अपने आलेख को देख लें कोई परिवर्तन कराना तो लिखें।

            मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिन बाद फिर मेरे कुछ उत्तर न देने पर उनका दूसरा मैसेज आया कि कृपया ₹50+₹200 भेजिए।  मेरा दिमाग एकदम चकरा गया पत्रिका के पैसे हमसे पहले ही ले चुके हैं, अब यह किस चीज के पैसे मांग रहे हैं?  मैंने उनसे पूछा यह किस चीज के पैसे आपको चाहिए? उन्होंने कहा ₹50 पोस्टेज के और ₹200 मैगजीन के। मैंने कहा जब मैगजीन के पैसे आप फिर ले रहे हैं तो आपने पहले ₹100 किस चीज के लिए थे । उन्होंने कहा - वह मैंने पब्लिशिंग के लिए थे। मुझे लगा कि पब्लिशिंग के पैसे लेने का क्या मतलब? माना पत्रिका कोई मानदेय नहीं देती है लेकिन पैसे लेकर पब्लिश करने वाली पत्रिका का कोई भी वजूद होता ही नहीं। फिर भी मैंने कहा मैं नहीं दूंगी और मुझको पत्रिका भी नहीं चाहिए। इस पर लिखा अच्छा ₹50 मत दीजिए ₹200 दे दीजिए, आपको हम पत्रिका दे देंगे । ठीक है मैंने उनको ₹200 भेज दिए।

                उसके बाद उनका मैसेज आया कि हम भोपाल में बहुत बड़ा कार्यक्रम कर रहे हैं,  जिसमें ऑनलाइन ऑफलाइन कवि सम्मेलन, पुस्तक विमोचन, नृत्य-संगीत सारी प्रतियोगिताएं रखी जाएगी और आप उसमें किसी भी तरीके से शामिल हो सकते हैं तो मैंने सोचा कि ऑफलाइन शामिल हो जाते हैं। मैंने कहा - मैं सिर्फ ऑफलाइन शामिल हो सकती हूं।   बोले अच्छा ठीक है आप ऑफलाइन शामिल हो जाइए और दूसरे दिन मैसेज आता है कि ₹250+₹2100 आप भेज दीजिए । मैंने पूछा यह पैसे किस चीज के चाहिए ?  उत्तर मिला वह ऑफलाइन के , आप उसमें शामिल होना चाहती हैं तो उसके लिए आपको ₹250 रजिस्ट्रेशन के और ₹2100 ऑफलाइन का योगदान दीजिए । जिससे आपको पुरस्कार और यह सब चीज मिलेगी।  आपको सुविधा प्रदान की जाएगी आपके घर आपका अवार्ड भेजा जाएगा उन सब चीजों के लिए सुनकर तो मुझे ऊपर से नीचे तक आग लग गई।  मैंने कहा कि मुझे किसी भी तरह की सहभागिता नहीं चाहिए ना मैं ऑनलाइन और ना मैं ऑफलाइन कोई भी सहभागिता नहीं करुंगी।  फिर उनके तरह-तरह के प्रलोभन दिए और वह वेन्यू भी उन्होंने फोटो से भेजा जहां पर प्रोग्राम करने वाले थे, देखिए कितना भव्य प्रोग्राम हो रहा है ।  ट्रॉफी का चित्र भी भेजा देखी ट्रॉफी हर एक को दी जाएगी और बड़ा सम्मान होगा। अगर आप ऑफलाइन रहेंगे तो आपके घर में ट्रॉफी आएगी। मैंने सोच लिया था कि नहीं  लेना है। मैंने कहा मुझे यह खरीदा हुआ कप या कोई भी सम्मान पत्र नहीं चाहिए। मेरी सहभागिता नहीं  होगी। अगर आप पत्रिका भेज सके तो भेज दे अन्यथा वह ₹300 भी आप अपने पास रखें।  इसके बाद मैं सब  खत्म कर दिया।  कुछ दिन बाद फिर आया की पिता विशेषांक की तैयारी हो रही है और आप कृपया अपने पिता की फोटो के साथ अपना एक आलेख भेजिए। मुझे बहुत तेज हंसी भी आई और यह भी फिर लगा कि उन्होंने तो व्हाट्सएप पर पूरा बिजनेस उसे डाला होगा मैसेज तो वह मेरे पास भी आ गया । ठीक है मैंने उसको इग्नोर कर दिया मैंने क्या मुझको भाग नहीं लेना है। 

          एक दिन मुझको वह पत्रिका प्राप्त हुई । मैं उसका चित्र यहां भी नहीं डाल रही हूं लेकिन फिर भी मैं बता रही हूं मुझको पत्रिका प्राप्त हुई,  एक किताब उसमें मासिक पत्रिका लिखा हुआ था अंदर जब खोला तो उसका कोई संपादकीय विवरण नहीं, और नहीं,  सीधी अनुक्रमणिका उसमें दी गई थी और पूरी पुस्तक में कहीं भी पृष्ठ संख्या नहीं है। 

               अनुक्रमणिका में भी रचना का कोई जिक्र नहीं सिर्फ़ लेखकों के नाम थे। अनुक्रमणिका की फोटो में यहां पर संलग्न कर देती हूं, जिससे कि समझ में आ सके कि किस तरह के अनुक्रमणिका है । प्रथम पृष्ठ सीधा अनुक्रमणिका है उसके बाद जब अंतर दिखा तो फोटो के साथ एक रचना दो रचना पीछे चलते-चलते पता चला कि एक लेखक की 10-10 रचनाएं हैं उसमें और किसी की दस किसी की पांच किसी की चार करके उसमें कुल 110 रचनाएं थी और उसमें लेखक कल शायद 80 थी । अगर हम आकलन करें तो इस एक किताब की बाबत उन्होंने दो लाख 40 हजार रुपए कमा उसमें सिर्फ नाम दिया किस शहर से प्रकाशित हुई? किस प्रकाशन से।  इसका कोई भी विवरण नहीं दिया एक ईमेल एड्रेस था जिसका कोई भरोसा नहीं होता एक कब दिया जाए और कब हटा दिया जाए और कौन से जवाब देता है या नहीं देता है लेकिन पत्रिका के नाम पर इतना बड़ा मजाक मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा और इससे सबक भी मिला कि पैसे लेकर पुस्तक के छपने वाले कितने बड़े व्यापारी होते हैं । और इसको वह अपनी आमदनी का एक साधन बना लेते हैं इन्होंने सारा कलेक्शन एक फोन नंबर पर लिया था और नहीं मालूम कि उसे अकाउंट से जैसा कि आजकल हो रहा है उन्होंने सारा पैसा निकाल के वह अकाउंट बंद कर दिया और फिर नए आलेख को लेकर कोई और नया अकाउंट खोला जाए या कुछ और किया जाए अगर ऐसा कुछ हुआ तो आगे विवरण के अनुसार लेकिन यह सब लोगों से आग्रह है कि इस तरह की चीजों से सावधान रहे।

सोमवार, 31 मार्च 2025

 मायके के चंद घंटे ! (3)

 

                                         उरई की संक्षिप्त यात्रा में सबसे ज्यादा प्रतीक्षित मुलाकात मुझे करनी थी अपने चाचाजी श्री रामशंकर द्रिवेदी जी से। कई बार वह भी कह चुके थे कि मिलना है , लेकिन जिस उद्देश्य से हम मिलना चाहते थे , उसे पूरा करने का समय नहीं मिला। मैं उनको बता चुकी थी कि मैं आ रही हूँ। उनकी कुछ अस्वस्थतावश हम दिन में नहीं मिल सके और मैं चाचीजी के घर चली गयी और वहां तो सारे दिन रहना ही था। अतः हमने समय शाम को मिलने का रखा। 

                                  हमारी मुलाकात तो पहले भी हो चुकी हैं, और हर बार मिलना हमें पापा और चाचा के ज़माने में ले जाता है। उनसे पुरानी यादें सुन कर लगता है कि मैं फिर उसी काल में पहुँच गयी हूँ। 

                              इतने बुजुर्ग होने पर भी उन पर माँ सरस्वती का वरद हस्त सदैव रहा है और आज भी उनकी सक्रियता नमनीय है। हमारे लिए वे प्रेरणा के स्रोत हैं। वे सुबह अस्वस्थ थे और शाम जब मैं पहुंची तो वे हमें अपनी आने वाली किताब की प्रूफ रीडिंग करते मिले। लैपटॉप या ऑनलाइन काम करने के वे अभ्यस्त नहीं है, इसलिए वे प्रिंट आउट से प्रूफ रीडिंग करते हैं। उनके चारों तरफ ईंट की दीवारों के साथ किताबों के दीवारे में खड़ी थीं। सिर्फ किताबें और किताबें लेकिन बहुत ही संयोजित। 

                             हमारे साथ बैठ कर वे अपने ज़माने की बातें हमें बताते रहे।  बांग्ला भाषा के प्रति उनका समर्पण कैसे हुआ? ये किस्सा भी उन्होंने हमें सुनाया कि जब वे कानपुर में पढ़ने के लिए गए तो उनका एक सहपाठी बंगाल से से था , जिसने उन्हें "बांग्ला कैसे सीखें " नामक किताब दी थी। एक हिंदी भाषी की कितनी रूचि होगी? उन्होंने ले तो ली लेकिन इस भाव से कौन पढ़ता है? फिर पता नहीं कौन सी प्रेरणा से उन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं बल्कि पूरी तरह से आत्मसात कर लिया और फिर उनका शोध भी बांग्ला भाषा पर ही था। फिर भविष्य में भी उन्होंने बांग्ला भाषा की कितनी किताबों का अनुवाद किया और कार्य सतत रूप से जारी है। सबसे स्मरण रखने वाली बात ये हैं कि वह सहपाठी उन्हें फिर कभी मिला नहीं लेकिन अपने से जोड़ कर रखा है। यह प्रसंग मुझे बहुत ही स्मरणीय लगा। 

                           हमारी चर्चा में पुराने साहित्कारों की बैठकों और उनसे जुड़े संस्मरण भी रहे। अपने कॉलेज के सहकर्मियों चाहे वे वरिष्ठ हों या फिर कनिष्ठ, जिन्हें मैं भी जानती रही , के बारे में बातें होती रहीं। उन्हें भी बहुत अच्छा लगा क्योंकि घर के लोगों के रूटीन अलग होते हैं और मिलने आने वाले अपनों के साथ जो वार्ता होती है उसके विषय अच्छे होते हैं और फिर अतीत को जी लेने का सुख जो होता है वह बड़ा ही सुकून देता है। 

                          घर से छोटी बहन का फोन आना शुरू जो गया कि उनकी सहेली आशा आयी है और दीदी से मिलने के लिए बैठी है। हम चाचाजी से विदा लेकर चल दिए, आशा मेरा इन्तजार कर रही थी क्योंकि मैं ही उससे बहुत सालों से नहीं मिली थी। उसने कह दिया कि आज दीदी से मिलकर ही जाऊँगी।  मुझे तो याद नहीं अब लेकिन उसी ने बताया कि मैंने उसके हाईस्कूल के लिए होमसाइंस का टी सेट ( कपडे का बना टेबल क्लॉथ ,ट्रे कवर और टीकोज़ी) बनाई थी। वह समय कुछ और ही था। मैं निश्छल भाव से सबके कामों के लिए उपलब्ध होती थी। चाहे किसी बच्चे की टीचर की फेयरवेल के लिए कविता लिखनी हो या लेख लिखना हो। तब कोई अंकल आंटी वाली बात नहीं थी। पूरा मोहल्ला , माँ की सहेलियाँ हों या पापा के मित्र चाचाजी,चाचीजी थे और उरई की बेटियाँ बुआ। वैसे हमारी उरई में आज भी ये शेष है। मैं बुआ वालों के लिए बुआ हूँ और दीदी वालों के लिए दीदी। 

                           एक पूरे दिन को मैंने इसी तरह से खुले वातावरण में जी कर दूसरे दिन सुबह ही कानपूर के लिए निकल लिए। व्यस्तता थी इसीलिए काफी लोगों को बता ही नहीं पाई कि मैं आ रही हूँ। सबसे क्षमा के साथ फिर से आने का अवसर तलाशती हूँ।  

मायके के चंद घंटे (2)

      मायके के चंद घंटे (2)

 

                                मायके का सफर अभी ख़त्म नहीं हुआ था क्योंकि वह तो पहुँचने के कुछ घंटे बाद से सोने के बाद का समय था। दूसरे दिन हम लोगों को अपनी चाची के पास जाना था, जो कई महीनों बाद उरई वापस आयीं थी। हमें उनसे मिलना था। हमारे उरई जाने का मुख्य ध्येय अपनी चाची , भाई भाभी और भतीजी से मिलना ही था। 

                              मेरे लिए हर रिश्ता चाहे वह खून का हो या फिर दिल का हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। भले ही हमको उरई छोड़े हुए 45 वर्ष हो चुके हों लेकिन कुछ भी भूला या गुजरा हुआ नहीं लगता है। हमारी चाची हमारी ही हमउम्र हैं लेकिन उनकी शादी बहुत जल्दी हो गयी थी। हमारी उम्र के अनुरूप पटती बहुत थी। माँ-पापा ही उनके संरक्षक थे। वही हाल रहा कि दो चार दिन बाद चाची के पास बैठे होते हम। कहीं भी  जाना हो,  हम दो साथ साथ। तब लड़कियों का अकेले जाना सिर्फ कॉलेज तक अनुमत था। उसके बाद संरक्षक चाहिए सो मेरी चाची के पास लाइसेंस था और हम कहीं भी जाएँ, जब माँ  मेरे जाने के लिए पापा से पूछें तो वहीं सवाल और कौन जा रहा है? चाची का लाइसेंस आगे कर दिया जाता। पिक्चर हो , बाजार हो या फिर प्रदर्शनी ( तब उरई में प्रदर्शनी लगाती थी , हाँ  यही बोला जाता था। 

                              चाची से मिलना भी उतने ही साल बाद हो रहा था, जितने वर्ष बाद मैं उरई आयी थी। काऱण हमारे चाचाजी दो महीने पहले ही हम सब को छोड़ कर चले गए थे। उन्होंने या चाची ने कभी ये नहीं समझा कि हम उनकी बेटियाँ नहीं है। वही रिश्ता हमारे भाइयों के बीच है। यद्यपि दोनों भाई मेरी शादी के बाद पैदा हुए लेकिन रिश्ते तो रिश्ते हैं। हमें प्यार और इज्जत सभी से खूब मिलती है।  वे चाहे कहीं भी रहें लेकिन जुड़े हैं और हमेशा जुड़े रहेंगे। 

                              हमने सारा दिन चाची के साथ गुजारा। नयी पुरानी बातें , सुख-दुःख तो हम पहले से ही बाँटते रहे हैं। एक कष्ट उन्हें भी और मुझे भी कि उरई से धीरे धीरे डेरे उठ रहे हैं।  घर हैं या मकान हैं लेकिन उसमें अपने रहने वाले दूर बेटों के पास जाकर रहने को मजबूर हैं क्योंकि जब दो में से एक रह जाता है तो बच्चे उन्हें अकेले यहाँ रहने की अनुमति नहीं देते हैं। और आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ये हमारे परिवार के संस्कार हैं कि बच्चों को इतनी फिक्र है। हम बच्चे दूर हों या फिर पास लेकिन अपने से बड़ों के संतुष्ट और सुरक्षित होने का अहसास एक निश्चिंतता का अहसास बहुत हैं। 

                           

मायके के चंद घंटे !

               

 

            मायके के चंद दिन हों या फिर चंद घंटे - कितना सुख देते हैं और कितने वर्षों पीछे ले जाकर एक बार फिर जीने का मौका देते हैं।  वही हुआ पिछले हफ़्ते ही हाँ दिन भी नहीं बस 40 घंटे गुजारे थे और जी लिया था वर्षों को। 

                                भाभी इस समय गुरुग्राम में थी, घर में ताला लगा था लेकिन चाबी मिल गयी, जिंदगी में पहली बार अपने ही घर में मैंने  तीन दो बहनों और पतिदेव सहित ताला खोल कर अंदर प्रवेश किया।  फिर भाभी की बताई जगहों से सब कुछ उठा कर चादर बदले और चाय बना कर पी। 

                                फिर दादा को , उनका नाम है विजय कुमार शर्मा, पता चला कि हम लोग आये हैं तो उन्होंने कहा कि मुझे रेखा से मिलना है क्योंकि मेरा जाना ही कम हो पाता है और इस बार तो करीब-करीब चार साल होने आ रहे थे, पहुँच ही गए, लेकिन तब भी कोरोना काम में भतीजे की शादी हुई थी तो कम लोगों ने ही शिरकत की थी। 

                               बताती चलूँ कि दादा कौन हैं ? हमने आँखे खोली तो दादा को देखा था , हमासे ज्यादा बड़े नहीं होंगे फिर दस साल बड़े होंगे। बचपन से दादा ही कहा और मैंने ही नहीं बल्कि उन्हें सब दादा ही कहते थे। किताबी डिग्रियाँ  भले ही न लीं हो लेकिन ज्ञान उन्हें बहुत था क्योंकि वे अख़बार वगैरह ध्यान से पढ़ते थे। हमारा परिवार आज भी वैसे ही प्रेम रखता है। दादा को उनका बेटा गाड़ी से छोड़ गया कि आप लोग बातें कीजिये मैं थोड़ी देर में आता हूँ। 

                             उरई छोड़ने तक यानि कि अपनी शादी तक हम उसी घर में थे और शादी भी दादा के घर से हुई थी। तब गेस्ट हाउस लेने की जरूरत नहीं होती थी। नीचे पूरा खाली कर दिया और ऊपर दादा परिवार सहित हो लिए। तब कोई अतिरिक्त देय नहीं था क्योंकि हमारा परिवार एक ही था। दादा ने बब्बा के साथ 'तेल और दाल मिल ' सभांलने लगे थे तो उनकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। फिर भाभी भी आ गयीं और हम लोगों के लिए एक सहेली।भाभी के साथ खूब रामलीला देखी क्योंकि वैसे तो पापा जाने नहीं देते लेकिन बहू जा रही है तो साथ में जा सकते हैं। प्रदोष के व्रत में हम और भाभी ही मंदिर पूजा करने साथ जाते थे। कितना याद करूँ ? ये यादें तो  निकलती ही चली आ रहीं हैं। 

                             सारे तो नहीं लेकिन बड़ी सारी भतीजियाँ तो जुडी ही हैं। एक भतीजा स्वप्निल भट्ट वह भी जुड़ा है। बताती चलूँ कि स्वप्निल और मेरी बड़ी बेटी में सिर्फ आठ दिन का अंतर है। दादा के साथ बैठ कर बब्बा के ज़माने से लेकर पापा माँ सबको याद किया गया। अफ़सोस इस बात का है कि हमारी रानी भाभी 2012 में साथ छोड़ गयीं थीं। 

                             सबकी यादों में समय कहाँ गुजर गया पता ही नहीं चला लेकिन उन दो घंटों में वर्षों जी लिए थे।  दादा ने कहा कि तुम लोग कहाँ खाना बनाओगी चलो सब घर पर खाना बनेगा वहीं साथ में खाएंगे लेकिन कुछ हमारे साथ था तो हमने कहा कि ये बर्बाद हो जाएगा।


गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

कर्म का धर्म !

   कर्म का धर्म !      

                                         जीवन में जो कर्म इंसान करता है और उसके फल भी संचित होते है लेकिन इन कर्मों में भी एक भाव होता है - प्रतिफल का भाव या अभाव । कुछ कर्म तो अपने हित के लिए ही करता है और कुछ वह दूसरों के हित के लिए भी करता है। लेकिन यह सब करने से पहले वह यह सोचता नहीं है कि वह जो कर रहा है वह उसके सामने किसी न किसी तरीके से फिर से आएगा। अगर यह सोचने की क्षमता उसमें होती तो शायद वह भाग्य खुद ही लिख लेता। 

                                   फिर भी जीवन में कुछ ऐसे कर्म भी हैं जिन्हें वह करता है और फिर उसके बदले वह ईश्वर से या फिर उस इंसान से कुछ अपेक्षा रखता है यानी कि प्रतिफल। ये प्रतिफल की कामना हमारे किये गए उस कार्य की सरलता और निष्काम कर्म के भाव को समाप्त कर देता है। हम अपेक्षा क्यों करें? लेकिन मानव स्वभाव है और ये स्वाभाविक भी है कि किसी की सहायता करते समय हम ये नहीं सोचते हैं कि हम क्यों करें? (वैसे सोचने वाले सोचते भी हैं और उसके दूरगामी परिणाम सोच कर ही करते हैं।) लेकिन हर कोई ऐसा नहीं करता है फिर भी अगर मुसीबत में आता है तो उसकी निगाहें उस और देखती हैं कि शायद वह मेरे काम आये और आने वाले आते भी हैं और न आने वाले सुधि भी नहीं लेते। 

                                कहने में सहज लगता है कि 'नेकी कर दरिया में डाल' लेकिन क्या ये सहज है ? ये मन को शांति देने वाला मूल मंत्र है क्योंकि अगर अपेक्षा ही न की जाय तो कितने कष्टों और तनावों से मुक्ति मिल सकती है। शांतिपूर्ण जीवन जीने का यही एक सूत्र है कि आप जिस काम से आपकी आत्मा संतुष्ट हो वह अवश्य ही करें लेकिन करके भूल जाएँ। कोशिश करके देखी जा सकती है और इस आपाधापी भरे जीवन में मन का कोई एक कोना तो शांत रहेगा। 

सत्कर्म के बाद कष्ट क्यों ?:--

                             प्रश्न उठता है कि बहुत सारे लोग कहते हुए मिल जात्ते हैं कि हमने जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं किया (जाने अनजाने के विषय में सब अनभिज्ञ रहते हैं।) फिर हमारे जीवन में इतने संघर्ष और कष्ट क्यों? ये बात तो सुनिश्चित है कि सदाचारी मनुष्य वर्तमान जीवन में अधिक कष्ट पाता है।  हमारे कर्म हमारा साथ जन्मों तक नहीं पीछा नहीं छोड़ते हैं, फिर चाहे वे अच्छे हों या फिर बुरे। वही कर्म अपने फल के साथ हमारे जीवन में मौजूद रहते हैं। ये सोचना तो व्यर्थ है कि हमारे अच्छे कर्म बेकार चले जाते हैं , हाँ बगैर अपेक्षा के किये जाए तो कष्ट नहीं होता और कई बार जीवन में होता है कि हम या हमारे परिजन मृत्यु के मुख से बाल बाल बच जाते है, तब हमारे वही सत्कर्म हमको महान कष्ट से बचाते हैं। अगर अकस्मात् ज्ञात होता है कि कोई सोते सोते चला गया। परिवार बिखर जाता है लेकिन वह अपने कर्मों के अनुरूप सब भोग कर चल देता है , बगैर किसी कष्ट के लेकिन कई ख्वाहिशे अधूरी लिए भी।  

कर्मों को तौलें :--

                        अगर हमारे अंदर इतना संयम और क्षमता हो तो अपने कर्मों के विषय में रोज सोते समय एक  बार स्मरण कर लें कि क्या हमने किया ? अच्छे को उठा कर अलग रख दें और बुरों पर ध्यान केंद्रित करके उनसे मुक्त होने प्रयास करें कि वे दुबारा न दुहराए जाएँ। एक दिन वह आयेगा कि हम खुद ही आकलन करके अहित करने या सोचने की मानसिकता से दूर चले जायेंगे। तब यह अनुभव कुछ लोगों के जीवन में तो होंगे कि हम आत्मिक तौर पर कितने संतुष्ट रहते हैं, मन पर कोई बोझ नहीं बचता है। करके देखिये एक बार।


 

बुधवार, 18 सितंबर 2024

श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                   श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                                   हर बार श्राद्ध के पंद्रह दिनों में खूब चर्चा होती है कि जीते जी माता-पिता की सेवा कर लेनी चाहिए फिर श्राद्ध का कोई महत्व नहीं है। ऐसा नहीं है, ये पंद्रह दिन अगर शास्त्रों में विशिष्ट माने गए हैं तो हैं, कितने माता-पिता संतान को बचपन में ही छोड़कर चले जाते हैं तो क्या उनका श्राद्ध ही होना चाहिए क्योंकि बच्चे सेवा कर ही नहीं पाते हैं।

                                 श्राद्ध के इन दिनों की आलोचना किसी भी रूप में हो, होती जरूर है और  करने वाले होते हैं वही जिनके मत में श्राद्ध को महत्व दिया जाता है। ये आलोचना क्यों? जो करता है अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ , आप नहीं करते हैं तो मत करिये और मत मानिये। ये अवश्य है कि जो जीते जी माता-पिता को सम्मान न दे पाया, सेवा का मौका तो बहुत बाद में आता है,  उसको न श्राद्ध करने की जरूरत है और न ही आलोचना करने की। ये उनके कर्म हैं कि उन्होंने ऐसी संतान को जन्म दिया। 

                               पुनर्जन्म के बाद भी आत्माएँ श्राद्ध कर्मों का फल पाती हैं। हर आत्मा को जन्म भी अपने कर्मो के अनुसार मिलता है। मनुष्य योनि सबको मिले जरूरी नहीं है, फिर इस जन्म में अगर उनके अंश श्राद्ध करते हैं और वह जिस भी योनि में हों उनको भोजन मिलता है। अगर नहीं मिलता होता तो ये परम्पराएँ यूँ ही न बनी रहती। इसकी मैं खुद अनुभवी हूँ कि पितृ होते हैं और अपनी संतान से कुछ चाहते हैं। अनुभव फिर शेयर करूँगी। इतने विश्वास के साथ इसीलिए लिख रही हूँ।

                              पूर्वजों के लिए हर धर्म और मत में एक दिन या कई दिन निश्चित होते हैं। अगर पूर्वजों की आत्मा का अस्तित्व न होता तो फिर वे क्यों ? हाँ तरीका सबका अलग अलग होता है। ईसाई धर्म में " SOUL'S DAY" मनाते हैं किस लिए अपने पूर्वजों के सम्मान में या याद में। उनका अस्तित्व वे भी स्वीकार करते हैं। 

                              इस्लाम में भी एक दिन ऐसा होता है जबकि "शब-ए -बारात" ऐसा ही मौका होता है , जबकि सब लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर जाकर रौशनी करते हैं और घर में पकवान बना कर उनको अर्पित करने की भावना से सबको खिलाते हैं और बाँटते भी हैं। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ ये काम किया जाता है लेकिन कभी भी उन सबके बीच इस पर टीका टिपण्णी या आलोचना नहीं होती है। 

                              अगर किसी को श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो आप मत कीजिये लेकिन आलोचना, ब्राह्मणों पर लांछन या फिर लूटने जैसे आरोप मत लगाइये। आप अपनी श्रद्धा से जो भी दान कर सकते हैं और कितने तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार सिर्फ "सीधा" जिसे कहते हैं वह निश्चित तिथि पर निकाल कर दान कर देते हैं। कौन कहता है कि आप पूरी दावत कीजिये। 

                            भगवन के लिए आलोचना मत कीजिये। सब अपने अपने विचार और मत के अनुसार काम करिये और करने दीजिये।

शनिवार, 14 सितंबर 2024

हिन्दी का स्वरूप !

                     

                                                  हिन्दी  का स्वरूप !  

 

              हिन्दी दिवस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और शायद इसी विषय में हम भी लिखने जा रहे हैं। बात वही है कि हिंदी के अस्तित्व को किस तरह बचा सकते हैं। जो प्रयास सरकारी तौर पर किये जा सकते हैं वे तो फाइलों और दस्तावेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि सब जगह मात्र फाइलों में ही दबे पड़े हों, फिर भी बहुत सारे क्षेत्रों में इसको प्राथमिकता दी जा रही है और प्रगति भी हो रही है, लेकिन इसके स्वरूप को भी हम ही संरक्षित कर सकते हैं। देवनागरी में  के हिन्दी अतिरिक्त और भी कई भाषाएँ और बोलियाँ  भी हैं, जिनके अस्तित्व के लिए भी संघर्ष अभी जारी है और शायद जारी रहेगा भी। 

                         एक सबसे अलग मुहिम जो हमें जारी रखनी है, वह है हिंदी भाषा के स्वरूप के लिए लड़ाई। ये मेरा अपना व्यक्तिगत विचार भी हो सकता है लेकिन ये स्वरूप हम से ही रचा जाता है, भले ही इसका उद्गम संस्कृत से हुआ हो लेकिन संस्कृत से ही इसकी व्याकरण भी ली गयी है और उसके स्वरूप को निश्चित किया गया है। जब हम कागज़ और कलम से लिखते थे तब भी यही भाषा थी और आज भी वही भाषा है।  अगर बदला है तो सिर्फ इतना कि हमने कागज़ कलम की जगह पर कम्प्यूटर को अपने लेखन का साधन बना लिया है। इसके लिए कंप्यूटर को भी बहुत कुछ सिखाया गया है , भले ही सिखाने वाले हम ही हैं। हमने रोमन से देवनागरी को लिखने का एक सशक्त तरीका चुन लिया है। अपनी सुविधाओं के अनुसार हम इसके स्वरूप को बदलने लगे और फिर कहने लगे कि यही हमें कंप्यूटर से मिलता है। 

                      आज जो चलन है वह सदियों पहले नहीं था। साहित्य अकादमी पुरस्कार आरम्भ हुए १९५५ से और आज तक मिल रहे हैं। वे श्रेष्ठ सृजन के लिए ही दिए गए हैं, लेकिन धीरे धीरे साहित्य में हम भाषा के मानकों को पूर्ण करते आ रहे हैं ऐसा कह नहीं सकते हैं, हाँ इतना जरूर है कि जितना हम हिंदी में व्याकरण के साथ शिथिलता बरतने लगे हैं क्योंकि अब हमें सुविधा अधिक दिखलायी देती है और उसी के अनुरूप हम उसको स्वीकार करने लगे हैं।  रही सही कसर तो मोबाइल ने पूरी कर दी है क्योंकि उसके की पैड के अनुसार ही हमें शब्दों का सृजन उचित लगने लगा है। 

                    एक बार नहीं बल्कि हर बार देखती हूँ कि पत्रिका के विषय में हर बार लिखा जाता है कि वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों का विशेष ध्यान रखें। फिर भी हर जगह ये त्रुटियांँ नजर आ ही जाती हैं। हम लिखने वाले तो ये कर भी सकते हैं लेकिन क्या संपादक मंडल या विभाग इस बात को जरा सा भी तवज्जो नहीं देता है कि पत्रिका या पुरस्कृत पुस्तक में क्या जा रहा है? हम भी बढ़ चढ़ कर उसको सोशल मीडिया के जरिये स्व-प्रशस्ति में शामिल करके लोगों को अवगत कराते ही रहते हैं। अगर कभी प्रश्न उठता है तो इन त्रुटियों के पैरोकार कहने लगते हैं कि हमें शुद्ध हिंदी नहीं चाहिए कि 'रेल' को 'लौहपथगामिनी' लिखें। इसमें कोई शक नहीं है कि सर्वप्रचलित शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों हम समय समय पर अपनाते रहते हैं , हम ही क्यों ? कैंब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी भी अन्य भाषाओं के वैकल्पिक शब्द न मिलने पर जस का तस अपना कर अपने शब्दों में शामिल कर लेते हैं। ये उचित भी है क्योंकि भाषा समृद्ध भी तभी होती हैं। हिंदी में हम कितने उर्दू, फारसी अंग्रेजी और अन्य देशी विदेशी भाषाओं के शब्द शामिल करते रहते हैं और आम आदमी उसको ही समझता है। भाषा की क्लिष्टता उसके विस्तार को अवरुद्ध कर सकती है इसीलिए इसमें औदार्य की आवश्यकता भी है। 

                      अगर सबसे अधिक त्रुटि हम पाते हैं तो वे हैं  - विरामादि चिन्हों को लेकर। लेखक की अपनी एक शैली होती हैं जैसा कि मैंने सुना है कि हम वाक्य का अंत किसी भी तरह से करें , हमारी मर्जी है। अवश्य है लेकिन हम जो लिखते हैं वह सिर्फ अपनी सुविधा और पढ़ने के  लिए नहीं लिखते है बल्कि उसके पाठक दूसरे ही होते हैं। किसी को वो गलत चिह्न खलते हो या नहीं मुझे बहुत खलते हैं और वही अगर पत्र -पत्रिकाओं द्वारा स्वीकृत कर लिए जाते हैं तो भाषा के साथ मजाक है। 

                          सम्पूर्ण कोई भी नहीं होता है और अक्सर हम अपनी त्रुटियों को खुद नहीं सँभाल या पकड़ पाते हैं, अगर पकड़ पाएं तो खुद ही ठीक कर लें लेकिन इसके लिए हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं और विद्वजन हैं  ही इसलिए कि अपने साथियों या नवोदित  कलमों को सही दिशा दे सकें। इसमें साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक पत्र और पत्रिकाओं का दायित्व बनता है कि प्रकाशन से पूर्व स्वयं सम्पादित करवायें और इस विषय में लेखन को भी एक बार इंगित करें। 

                        ये बहुत बड़ा काम नहीं है लेकिन हिंदी के स्वरूप को देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी व्याकरणिक रूप से प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है। अगर हम कुछ कम जानते हैं और कोई हमें सही करता है तो इसमें अपनी साख पर दाग नहीं समझना चाहिए बल्कि उसके प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि एक त्रुटि के विषय में बताया और फिर ये निश्चित है कि वह त्रुटि हम दुबारा नहीं करेंगे।  अगर इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेंगे तो आने वाले समय में हिंदी भाषा का स्वरूप न हिंदी का रहेगा और न ही अंग्रेजी का बल्कि ये सोशल मीडिया की भाषा या फिर हमारे बोल कर लिखेी जा रही सामग्री में आने वाली सभी त्रुटियों को भाषा का ही एक अंग मान लिया जाएगा। सिर्फ आकर्षित करने के लिए लिखी जा रही संक्षिप्त सामग्री ही आने वाली पीढ़ी की भाषा बन कर रह जायेगी।